Monday 2 July 2018

खांटी किकटिया -अश्विनी कुमार पंकज के मगही उपन्यास पर एगो पत्र / अस्मुरारी नन्दन मिश्र

 सामाजिक-आर्थिक दसा-दिसा के पिछु-पिछु रहs हय दार्शनिक मत

चित्र साभार- Ak  Pankaj  के फेसबुक कवरफोटो से
आदरजुकुर अश्विनी कुमार पंकज जी,

परनाम करीथिअय।

अपने के लिखल उपन्यास "खांटी किकटिया" पढ़लिअय। मगही के मानक रूप का हे, अउ ओकर निरधारन होल हे कि नञ्, ई नञ् पता हे। एकर पर अलग-अलग जगह बोली रूप में भेद होवे के कारण कहूं-कहूं अपने के भासा पकड़े में तनि दिक्कत भेल, बाकिर फिर भी पढ़े में मजा अयलक। 

सबसे पहले तो अपने के बधाई और धन्यवाद कहे के मन करित हे, कि अपने मगही में एतना गंभीर अउ सार्थक रचना देवे के काम कयली हे। पक्का तौर पे ई काम मगही के इतिहास में आद करल जयतय। कहूं-कहूं तो भासा अयसन रूप ले लेलकय हे जैसे पालि अउ प्राकृत के नगीच पहुँचल हो। खास करके दर्शन और सास्त्रारथ के समय। ई देखके अप्पन भासा पर बिस्बास बढ़ गेलक कि एकर में गंभीर विषय के कहे के ताकत हे अउ जदि काम करल जाय तो ई भाषा कौनो तरह के भाव-बिचार परगट करे में समर्थ हे।

मक्खलि गोसाल के बारे में जादे न जानs हलिअय अउ अभी भी अपने के किताब से जादा न जानित हिअय। इनखर चरित जैसन मजगूत गढ़ल गेलय हे कि असली चरित पर बिस्बास बढ़ जा हे। लेकिन पटना में ई किताब के लोकार्पण में अपने के सुनलिअय हल कि मक्खलि के जिनगी के बारे में बहुत जानकारी मौजूद न रहे के कारण बहुत कुछ कल्पन के सहारा लेवल गेलक हे। यही बात से बहुत सवाल ठाड़ा होवे लगs हय। काहे कि एकर में बरधमान के अजीब तरह से सामने रखल गेल हे, पूरे खलनायक के जुकुर। अचरज तो ई हे कि एकर नायक हथ तो एकदम्मे 'दोषरहित' और खलनायक हथ तो एकदम से 'दूषणसहित'। जबकि ई ढंग कम-से-कम आधुनिक साहित्य के नञ् हे। अउ बरधमान जैसन चरित के ई रूप में पेश करे से का किताब अउ ओकर बाकि चरित के प्रति बिस्बास बनल रह सकs हे?

अपने भूमिका में लिखलथिन हे कि जैन दोआरा गढ़ल झूठा खिस्सा उलट देल गेलय हे। हमरा जरिको न पता कि सच का हे, लेकिन महावीर के जौन रूप मन में बसल हे कि सीधा बिस्बास करला कठिन हो जा रहलक हे। मानलिअय कि बरधमान श्रेणिक हलथि अउ उनखर पास जे मत हे ऊ बेपारी अउ भंडरिया के बास्ते जादे बेस हे, लेकिन ऊ मत श्रेणिक के भी ऊही जुकुर साथ देवे ओला हे ई तो नञ् दिखs हे। ओकरा पर जे अंतिम जुद्ध देखावल गेलय, ऊ तो अउ अंतर्विरोध के नियन लगित हे। काहे कि चाहे चेटक होत चाहे कुनिक दुनों तो श्रेणिक समाज से ही हथन, तब मक्खलि अउ उनकर संघतियन के एगो के पच्छ काहे लगी चुने पड़लय। का उहां सामाजिक अउ आर्थिक से जादे दार्शनिक कारण बड़ हो गेल? जबकि अपने पूरे उपन्यास में देखैलथिन हे कि दार्शनिक मत सामाजिक-आर्थिक दसा-दिसा के पिछु-पिछु रहs हय?

अयसन भी देखल गेलय कि कुछ परसंग जैसे एकदम से आगू-पिछू से कट्टल हय। बस ओकर महत्त्व एही हे कि केकरो नीचा अउ ऊंचा दिखा रहलक हे। जैसे दूगो चुंदी ओला मनुख के दोआरा एगो जनाना के साथ जबरदस्ती करे के कोसिस करे ओला परसंग। ई परसंग असल खिस्सा से कजो नञ् जुड़ल हे, बस 'चुंदी' के बारे में एक गढ़ल खिस्सा जुकुर दिखायत हे। अयसन में तो जे अपने बरधमान के मुह से कहैलथिन हे, ऊ अपने पर भी आरोप जुकुर मढ़ल जा सकs हे कि " खिस्सा के बड़ असर होवs है। एक बेर कह देला बाद जुग-जुग चलs है। सासतर आउ सांसत से भी जादे मार करs है। से लेल कहैत हीवs, खिस्सा बनावs।" तो का ई भी बनवल खिस्सा ही हे?

सवाल तो एगो पहले भी उठलय हल, जब अपने पहले तो डॉ॰ धर्मवीर के मत के काटलथिन कि जब जाति परथा भी नञ् रूप लेलकय हल, तब मक्खलि के शूद्र रूप में कैसे मानल जा सकs हे, लेकिन ओकर तुरते बाद अपने पूरा बिसवास से बेहिचक होके कहलथिन कि "उ आदिबासी हलथी।" अचरज तो ई हे कि ई 'आदिबासी' शब्द उपन्यास में भी आगे उपयोग में आवित चल गेल हे। बेस ई होल कि कुछ दूर गेला बाद एकर प्रयोग से बचल गेल हे। हम्मर जानते 'आदिवासी' शब्द ओतना पुरा‌न नञ् हे। (एहीं पर आद पड़ित हे कि कै गो मुहाबरा आउ कहाबत भी अयसन प्रयोग में अयलक हे, जे बाद के बुझा हे।)

एगो शंका तो इहू हे कि जादेतर देखल गेलय हे कि बलिदान के बाद केकरो मत अउ संप्रदाय दोगुन-तिगुन गति से फैले लगs हे, लेकिन मक्खलि के साथ अयसन काहे होलय कि ई बलिदान के बाद जैसे सिकुड़ गेलय, बाद में कोय नामलेउआ भी नञ् बचलय?

जे हो, उपन्यास पढ़के मजा अयलक। जबकि पढ़े में अपन बेअस्तता के कारण जादे समय लगयली, लेकिन खिस्सा कहे के तरीका खिस्सा से जोड़ले रहलक। कुछ शंका हलक से अपने के सामने रख देली। एकरा वैसही समझूं जैसे कि एगो गिरहस्थ अपन शंका कौनो श्रमण के पास रखलक हे।

दुबारा अपने के धन्यवाद कहित ही अउ उम्मेद करित ही कि अपने अयसने आउ पढ़े के देबय।

अपने के-
अस्मुरारी नंदन मिश्र
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आलेख - अस्मुरारी नंदन मिश्र
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लेखक - अस्मुरारी नंदन मिश्र